अब हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस यानी एआई का इस्तेमाल लगातार बढ़ रहा है.
इंटरनेट पर किसी सवाल का जवाब या जानकारी ढूंढनी हो, ईमेल लिखना हो या कोई गाना सुनना हो, इन सब में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल हो रहा है. हमारा कंप्यूटर इसी के आधार पर एल्गोरिदम के ज़रिए हमें फ़ौरन जानकारी दे देता है.
इससे हमारा काम आसान ज़रूर हो जाता है, लेकिन क्या हम इस पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भर होते जा रहे हैं? क्या हम अपनी समीक्षात्मक सोच यानी किसी विषय पर गहराई से सोचने की क्षमता का इस्तेमाल कम करने लगे हैं और हमारी यह क्षमता कमज़ोर होती जा रही है.
क्या हमारा आत्मविश्वास भी कम हो रहा है? कई अध्ययनों से पता चलता है कि इससे हमारी समीक्षात्मक तरीके़ से सोचने की क्षमता यानी क्रिटिकल थिंकिंग पर बुरा असर पड़ रहा है.
एमआईटी की मीडिया लैब के एक अध्ययन में कुछ लोगों को निबंध लिखने के लिए कहा गया. उनमें से कुछ लोगों ने इसके लिए एआई का इस्तेमाल किया, जबकि अन्य लोगों ने नहीं किया.
इसमें यह दिखाई दिया कि जिन लोगों ने निबंध लिखने के लिए एआई का इस्तेमाल किया, वे अगले निबंध लिखते समय अधिक आलसी होते गए.
इसलिए इस सप्ताह दुनिया जहान में हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि क्या आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस हमारी क्रिटिकल थिंकिंग क्षमता को नष्ट कर रहा है?
क्रिटिकल थिंकिंग का अर्थ है किसी विषय के सभी पहलुओं को परख कर निष्पक्ष तरीके़ से आकलन करना और फ़ैसला लेना. यानी किसी बात को आंख मूंदकर मान लेने के बजाय उसके सभी पहलुओं पर ग़ौर करना. हम इस क्षमता का इस्तेमाल समस्याओं को सुलझाने के लिए करते हैं.
अमेरिका की वर्जीनिया यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर डॉक्टर डैनियल विलींगहैम कहते हैं कि हम अक्सर किसी बात का निर्णय क्रिटिकल थिंकिंग के आधार पर नहीं बल्कि अपनी याददाश्त के आधार पर करते हैं.
वह कहते हैं, "दरअसल, अक्सर हम किसी समस्या का हल ढूंढने के लिए अपने पूर्व अनुभवों या उसकी स्मृति पर निर्भर करते हैं. लेकिन कई बार हम ऐसी समस्या का सामना करते हैं जो हमारे सामने पहली बार खड़ी हुई हो. यानी उसे हम अपनी स्मृति के आधार पर नहीं सुलझा सकते. ऐसे में हमारी क्रिटिकल थिंकिंग सामने आती है."
"स्मृति महत्वपूर्ण होती है और कई बार हम उसी की मदद से सफलतापूर्वक समस्याएं सुलझा चुके होते हैं. हालांकि क्रिटिकल थिंकिंग से भी कई बार समस्याएं आसानी से हल नहीं होतीं."
हम जब कोई समस्या सुलझा लेते हैं तो वह हमारी याददाश्त में दर्ज हो जाती है और अगली बार वैसी चुनौती को हम पिछले अनुभव के आधार पर ही सुलझाते हैं.

क्रिटिकल थिंकिंग मस्तिष्क के सामने वाले हिस्से में रहती है जिसे प्रीफ़्रंटल कोर्टेक्स कहते हैं, जबकि स्मृति दूसरी जगह संग्रहित होती है. उस हिस्से को हिपोकैंपस कहते हैं. ज़्यादा काम करने से प्रीफ़्रंटल कोर्टेक्स में टॉक्सिन जमा होते हैं जिसकी वजह से हमें थकान महसूस होती है.
डॉक्टर डैनियल विलींगहैम के अनुसार इस थकान की वजह से ही हम क्रिटिकल थिंकिंग के बजाय अपनी याददाश्त पर निर्भर करना पसंद करते हैं. इससे काम तो आसान हो जाता है लेकिन हम समस्याओं को सुलझाने के नए तरीके़ सीखने से वंचित रह जाते हैं.
एक ही तरीके़ से समस्या सुलझाने से यह भी होता है कि हम दिमाग़ पर ज़ोर डालना छोड़ देते हैं. क्रिटिकल थिंकिंग से दिमाग़ पर ज़ोर तो पड़ता है, मगर वह अधिक तेज़ और सक्षम भी होता है.
डॉक्टर डैनियल विलींगहैम कहते हैं कि क्रिटिकल थिंकिंग से दो फ़ायदे होते हैं.
"एक तो यह कि हम नई चुनौतियों का सामना करना सीखते हैं और दिमाग़ तेज़ होता है. दूसरा बड़ा फ़ायदा यह है कि जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती है, अक्सर हमारे दिमाग़ की क्षमताएं कमज़ोर होने लगती हैं. लेकिन क्रिटिकल थिंकिंग दिमाग़ को बुढ़ापे में स्वस्थ और तेज़ रखने में मदद करती है."
सवाल यह है कि एआई किस तरह क्रिटिकल थिंकिंग के आड़े आता है?
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स्विट्ज़रलैंड के एसबीएस बिज़नेस स्कूल में मैनेजमेंट के प्रोफ़ेसर डॉक्टर माइकल गैरलिक हैं. हमने उनसे जानना चाहा कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस या एआई को कैसे परिभाषित किया जाता है.
उन्होंने कहा, "इस परिभाषा के दो हिस्से हैं - आर्टिफ़िशियल यानी कृत्रिम और इंटेलिजेंस यानी बुद्धि, जो मशीन द्वारा संचालित होती है. यह दरअसल अपने काम में मनुष्य के दिमाग़ की नक़ल करता है. जैसे हम बच्चों को प्रशिक्षित करते हैं, उसी प्रकार एआई को भी प्रशिक्षित किया जाता है. वह मनुष्यों के तर्क करने और समझने की क्षमता प्राप्त करता है. यानी मशीन उसमें उपलब्ध जानकारी का विश्लेषण करके फ़ैसले करती है और कई कामों में हमारी मदद करती है. यहां तक कि हमारे लिए फ़ैसले भी करती है."
आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस में कई प्रकार की जानकारी या डेटा का संग्रह होता है और वह उसी का आकलन करके हमें जवाब देता है. पहले कंप्यूटरों में सीमित जानकारी होती थी और सभी कंप्यूटर एक सवाल का एक ही जवाब देते थे.
आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस इस मामले में अलग है और वह अलग-अलग प्रकार की जानकारियों के आधार पर संदर्भ और स्थितियों के अनुसार एक ही सवाल के अलग जवाब भी दे सकता है. वह नया डेटा इकट्ठा करता रहता है जिसे लार्ज लैंग्वेज मॉडल भी कहा जाता है.
डॉक्टर माइकल गैरलिक बताते हैं, "एआई एक-एक शब्द का आकलन करके कयास लगाता है कि आप क्या जानना चाहते हैं, मगर वह संदर्भ को अच्छी तरह नहीं समझ पाता. लार्ज लैंग्वेज मॉडल इतिहास को नहीं समझता. इसके पास इतिहास के बारे में काफ़ी जानकारी होती है और वह शब्दों का आकलन करके समझने की कोशिश करता है कि आप क्या जानना चाहते हैं और उसी हिसाब से जवाब देता है."
"जनरेटिव इंटेलिजेंस अब जानकारी और सवाल की पेचीदगियों को समझने लगा है. अब यह हमारे सर्च इंजन, स्मार्टफ़ोन और व्हाट्सऐप जैसे प्लेटफ़ॉर्म में इस्तेमाल हो रहा है. भाषा और डेटा के आधार पर यह अंदाज़ा लगाता है कि किसी सवाल का क्या सही जवाब होगा. कभी-कभी इसमें वह भ्रमित भी हो जाता है."
जनरेटिव एआई कई बार हमें चापलूसी वाले जवाब भी देता है. यानी वह यह अंदाज़ा लगाना चाहता है कि आप क्या सुनना चाहते हैं और उस हिसाब से जवाब पेश करता है.
डॉक्टर माइकल गैरलिक कहते हैं कि इसे हमें राहत देने के लिए बनाया गया था, इसलिए जिस प्रकार हम सवाल करते हैं, उससे वह कयास लगाता है कि हम सकारात्मक जवाब सुनना चाहते हैं या नकारात्मक और उसी हिसाब से जवाब देता है. इससे हमें मदद तो मिलती है, लेकिन इस पर निर्भरता बढ़ने से हम अपने विवेक और समझ का इस्तेमाल कम करने लगते हैं.
डॉक्टर माइकल गैरलिक का मानना है कि 'जनरेटिव एआई कई काम तेज़ी से करके हमारा समय और मेहनत बचाता है, लेकिन साथ ही हमें ख़ुद सोचने से दूर ले जाता है. एक तरह से सोचने का हमारा काम वह ख़ुद करने लगता है. हमारे लिए फ़ैसले भी ख़ुद ही करने लगता है. मैंने एक अध्ययन में पाया कि एआई पर निर्भरता बढ़ने से हमारी क्रिटिकल थिंकिंग घटने लगती है.'
लेकिन क्या एआई के इस्तेमाल का ऐसा तरीक़ा भी हो सकता है जिससे हमारी मदद तो हो, पर हमारी क्रिटिकल थिंकिंग कम न हो?
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यूवान सो सिंगापुर स्थित एक ऐसे डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म की प्रमुख और संस्थापक हैं जिसका नाम है नूडल फ़ैक्ट्री.
दरअसल, एआई पर आधारित यह प्लेटफ़ॉर्म शिक्षा और प्रशिक्षण में इस्तेमाल होता है. इसका नाम नूडल फ़ैक्ट्री इसलिए रखा गया क्योंकि इसकी संस्थापक का मानना है कि इसका इस्तेमाल नूडल बनाने जितना ही आसान है. मगर यह प्लेटफ़ॉर्म प्रशिक्षण में लोगों की किस प्रकार मदद करता है?
यूवान सो ने कहा कि यह प्लेटफ़ॉर्म उन समस्याओं को सुलझाता है जो हम सभी के सामने रही हैं.
वह बताती हैं, "यह दरअसल हमारा क्लोन है. कई स्कूल या कॉलेजों में छात्र अगर कोई बात समझ न पाएं तो वे दोबारा सवाल पूछने से बचते हैं. लेकिन इस प्लेटफ़ॉर्म से आप एक सवाल का जवाब कई बार पूछ सकते हैं. कई अंतरराष्ट्रीय छात्रों को विदेशी भाषा में पढ़ाए जा रहे विषय को समझने में दिक़्क़त होती है. यह प्लेटफ़ॉर्म छात्रों को उनकी मातृभाषा में पढ़ा सकता है."

इस प्रकार का एजुकेशनल प्लेटफ़ॉर्म बनाने में लार्ज लैंग्वेज मॉडल का इस्तेमाल होता है. इस प्लेटफ़ॉर्म में किसी पाठ्यक्रम का सारा डेटा शामिल कर लिया जाता है जिसका इस्तेमाल छात्र अपनी सुविधा के अनुसार कर सकते हैं.
यूवान सो कहती हैं , "यह प्लेटफ़ॉर्म शिक्षकों के सहायक के रूप में काम करता है, मगर आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस अध्यापकों की जगह नहीं ले सकता. उसकी भूमिका सीमित होती है और वह अध्यापकों द्वारा किए जाने वाले कम महत्वपूर्ण काम करता है. मिसाल के तौर पर, वह छात्रों के बार-बार पूछे जाने वाले सवालों के जवाब दे सकता है. यह अध्यापकों को ग्रेडिंग या प्रश्न पत्रों की जांच में मदद करके उनका समय बचा सकता है."
आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस पर आधारित डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पढ़ने-लिखने में मददगार साबित होते हैं, इसमें तो कोई शक नहीं. मगर क्या इन पर निर्भरता से छात्रों का दिमाग़ धीमा चलने लगता है?
यूवान सो ने बताया, "कई छात्र शिक्षकों की तरफ़ से दिए गए काम को पूरा करने के लिए एआई का इस्तेमाल करते हैं. मिसाल के तौर पर, वे एआई की मदद से निबंध लिख लेते हैं. मगर इसके लिए उन्हें डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म में काफ़ी सारा डेटा डालना पड़ता है, जिसके बारे में उन्हें सोचना पड़ता है. यानी उनकी अपनी क्रिटिकल थिंकिंग का इस्तेमाल तो होता ही है. हम एआई को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते. मगर अब शिक्षकों को एआई के इस्तेमाल को ध्यान में रखकर ही पढ़ाने और छात्रों को परखने के नए तरीके़ अपनाने होंगे."
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लंदन के किंग्स कॉलेज में प्रैक्टिस इन एआई की प्रोफ़ेसर सना खरेनघानी कहती हैं कि एआई के इस्तेमाल के साथ-साथ हमें अपने दिमाग़ का इस्तेमाल भी करना चाहिए.
प्रोफ़ेसर सना खरेनघानी का कहना है, "मिसाल के तौर पर, हम किसी समस्या को सुलझाने में अपनी याददाश्त का इस्तेमाल करते हैं. लेकिन जब एआई का इस्तेमाल करते हैं तो हमें उससे मिलने वाले जवाब के बारे में गहराई से सोचना चाहिए और सोच-परख कर ही उस जानकारी का इस्तेमाल या आकलन करना चाहिए."
"हमें अपने आपको एआई का सही तरीक़े से इस्तेमाल करने के लिए ढालना होगा. हमें बच्चों को भी एआई से प्राप्त जानकारी पर आंख मूंदकर भरोसा करने के बजाय उस पर सवाल उठाना सिखाना चाहिए ताकि यह टेक्नोलॉजी हमारे नियंत्रण में रहे. मगर इस टेक्नोलॉजी को नियंत्रित करने के लिए सरकारी नीतियों की भी ज़रूरत है."
एआई का इस्तेमाल विज्ञापन कंपनियां भी कर सकती हैं और वे हमें कई चीज़ें ख़रीदने के लिए प्रोत्साहित कर सकती हैं. इस पर कैसे नियंत्रण किया जा सकता है?
सना खरेनघानी की राय है कि सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि इस टेक्नोलॉजी में पारदर्शिता हो.
वह बताती हैं, "जब एआई हमें कोई बात समझाता है या हमें कुछ करने के लिए प्रोत्साहित करता है, तो हमें यह भी पता होना चाहिए कि एआई को अपने सुझाव पर कितना विश्वास है. मिसाल के तौर पर, अगर एआई को अपने सुझाव पर पूरा भरोसा नहीं है तो उसे हमें बताना चाहिए कि हमें इस जानकारी के लिए दूसरे स्रोतों से भी पड़ताल करनी चाहिए. अगर बात कुछ ख़रीदने की है तो उसे हमें दूसरे विकल्पों के बारे में भी बताना चाहिए."
मगर क्या एआई क्रिटिकल थिंकिंग को घटा सकता है?
सना खरेनघानी ने कहा, "हमें एआई पर अपनी निर्भरता को कम रखना चाहिए. यह नहीं सोचना चाहिए कि हमारे सारे काम एआई ही कर लेगा. इसके इस्तेमाल और अपने दिमाग़ के इस्तेमाल के बीच संतुलन रखना ज़रूरी है. हमें उसकी हर बात पर अविश्वास भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे हमारी उत्पादकता घट जाएगी. यानी हमें संतुलित तरीक़े से इसका इस्तेमाल करना चाहिए. मगर साथ ही इस टेक्नोलॉजी में पारदर्शिता रखने के लिए इस पर नियंत्रण भी ज़रूरी है."
तो अब लौटते हैं अपने मुख्य प्रश्न की ओर- क्या आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस हमारी सोचने की क्षमता को ख़त्म कर रहा है?
आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस तेज़ी से हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बनता जा रहा है और धीरे-धीरे कई डिजिटल काम करने के लिए हम उस पर निर्भर होते जा रहे हैं.
आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से हमारी उत्पादकता बढ़ रही है और सीखने-सिखाने में यह काफ़ी मददगार है. लेकिन जैसे-जैसे वह अधिकाधिक विकसित होता जा रहा है और हमारी उस पर निर्भरता बढ़ रही है, वैसे-वैसे हमने कई समस्याओं को सुलझाने के लिए अपने दिमाग़ का इस्तेमाल कम कर दिया है, जिससे हमारा दिमाग़ धीमा पड़ सकता है.
हमने यह भी देखा है कि हम हमेशा ही एआई के जवाब पर भरोसा नहीं कर सकते, इसलिए उस पर सावधानी से सोचकर ही कोई निष्कर्ष निकालना चाहिए.
एआई हमारी क्रिटिकल थिंकिंग को तभी ख़त्म कर पाएगा जब हम उसे ऐसा करने देंगे. इसलिए एआई के इस्तेमाल के साथ-साथ अपनी समझ और बुद्धि का इस्तेमाल भी ज़रूरी है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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