New Delhi, 9 जुलाई . ‘आवेला आसाढ़ मास, लागेला अधिक आस, बरखा में पिया रहितन पासवा बटोहिया…’ ये पंक्ति ‘भोजपुरी के शेक्सपियर’ भिखारी ठाकुर की अमर रचना ‘बिदेसिया’ की है, जो आज भी बिहार, झारखंड और पूर्वांचल के गांवों में गूंजती हैं. 10 जुलाई को उनकी पुण्यतिथि है, लोक कवि, नाटककार, गीतकार और समाज सुधारक ने अपनी कला से समाज की कुरीतियों पर प्रहार किया और वंचितों की आवाज बुलंद की.
उनकी रचनाएं समाज सुधार और मानवीय संवेदनाओं की याद दिलाती हैं. ‘बेटी बेचवा’ जैसे नाटकों ने बाल विवाह और दहेज जैसी कुप्रथाओं पर प्रहार किया, तो ‘बिदेसिया’ ने प्रवासियों की पीड़ा को आवाज दी. उनकी कविताएं और गीत आज भी भोजपुरी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं, जो सूरीनाम, फिजी और मॉरीशस जैसे देशों में भी गूंजती हैं. भिखारी ठाकुर की विरासत को संरक्षित करने के लिए छपरा में ‘भिखारी ठाकुर रंगमंच और अनुसंधान केंद्र’ सक्रिय है, जो उनकी कला को नई पीढ़ी तक पहुंचा रहा है.
भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर 1887 को बिहार के सारण जिले के कुतुबपुर गांव में एक नाई परिवार में हुआ था. उनके पिता दलसिंगार ठाकुर और माता शिवकाली देवी थीं. गरीबी के कारण भिखारी स्कूली शिक्षा पूरी नहीं कर सके, लेकिन उनकी प्रतिभा ने उन्हें भोजपुरी साहित्य और रंगमंच का सितारा बना दिया. साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें ‘अनगढ़ हीरा’ और मनोरंजन प्रसाद सिंह ने ‘भोजपुरी का शेक्सपियर’ कहा था.
साल 1944 में बिहार सरकार ने उन्हें ‘राय बहादुर’ की उपाधि से सम्मानित किया. भिखारी ने अपने करियर की शुरुआत रामलीला मंडली से की, लेकिन जातिगत भेदभाव की वजह से उन्होंने अपनी नाट्य मंडली बनाई. उनकी पहली रचना ‘बिरहा बहार’ थी, लेकिन 1917 में लिखा गया नाटक ‘बिदेसिया’ उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति बनी. यह नाटक उन प्रवासियों और उनकी पत्नी की पीड़ा को दिखाता है, जो रोजगार के लिए दूसरे शहरों में जाते हैं. कहा जाता है कि ‘बिदेसिया’ इतना प्रभावशाली था कि इसके प्रदर्शन के दौरान दर्शक रो पड़ते थे.
उनकी अन्य प्रमुख रचनाएं हैं, जिनमें ‘बेटी बेचवा’, ‘गबरघिचोर’, ‘भाई विरोध’, ‘कलयुग प्रेम’, ‘राधेश्याम बहार’, ‘गंगा स्नान’, ‘विधवा विलाप’, ‘पुत्रबध’ और ‘ननद-भौजाई’ है. वहीं, ‘गबरघिचोर’ की तुलना बर्तोल्त ब्रेख्त के नाटक ‘द कॉकेशियन चॉक सर्कल’ से की जाती है. भिखारी ने अपनी मंडली के साथ बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, बंगाल और असम के डिब्रूगढ़ तक प्रदर्शन किए. उनके नाटकों में संगीत, नृत्य और हास्य का अनोखा मिश्रण होता था. उस समय पर्दा प्रथा के कारण महिलाओं का मंच पर आना मुश्किल था, इसलिए भिखारी ने पुरुषों को महिला किरदारों में उतारा, उनकी मंडली में कई प्रतिभाशाली कलाकार थे.
खास बात है कि भिखारी की रचनाएं सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित होती थीं. उन्होंने प्रवास, गरीबी, बेमेल विवाह, जातिवाद और महिलाओं की समाज और परिवार में स्थिति जैसे विषयों को अपनी रचनाओं के जरिए उठाया. उनके नाटकों में संवाद और गीतों का मिश्रण शास्त्रीय भारतीय रंगमंच और शेक्सपियर की शैली से मिलता-जुलता था. साल 1938 से 1962 के बीच उनकी 36 से अधिक किताबें प्रकाशित हुईं, जिन्हें बाद में ‘भिखारी ठाकुर ग्रंथावली’ के तीन खंडों में संकलित किया गया.
साल 1963 में उनके नाटक ‘बिदेसिया’ पर आधारित भोजपुरी फिल्म रिलीज हुई, जिसमें उन्होंने खुद ‘दगड़िया जोहत ना’ कविता का पाठ किया था.
भिखारी ठाकुर का साहित्यिक जीवन जितना शानदार था, निजी जीवन उतना ही संघर्षों से भरा रहा. गरीबी ने उनका साथ नहीं छोड़ा और साल 1946 में हैजे की वजह से उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई. उनके बेटे शीलनाथ ठाकुर उनके इकलौते संतान थे.
10 जुलाई 1971 को 83 वर्ष की आयु में भिखारी ठाकुर का निधन हो गया.
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एमटी/जीकेटी
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