आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले आरएसएस के दूसरे सबसे बड़े नेता हैं। हाल में उन्होंने 1975 में देश में आपातकाल लागू किए जाने के संदर्भ में कहा कि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद ये दोनों शब्द आपातकाल के दौरान भारतीय संविधान की उद्देशिका में जोड़े गए थे। चूंकि ये शब्द डॉ. अंबेडकर द्वारा तैयार किए गए संविधान के मूल मसविदे की उद्देशिका का हिस्सा नहीं थे इसलिए इन्हें हटाया जाना चाहिए।
हिन्दुत्ववादियों की ओर से इस तरह की मांग पहली बार नहीं हो रही है। सन 2014 में बीजेपी सरकार के सत्ता में आने के बाद के पहले गणतंत्र दिवस (26 जनवरी 2015) के अवसर पर सरकार ने एक विज्ञापन जारी किया, जिसमें छपे उद्देशिका के चित्र से ये दोनों शब्द गायब थे। बहाना यह बनाया गया कि नवंबर 1949 को जारी संविधान के अंतिम मसविदे में ये शब्द नहीं थे। इस मुद्दे पर खूब बहस-मुबाहिसे हुए और अदालतों में याचिकाएं दायर कर यह मांग की गई कि संविधान से इन शब्दों को हटाया जाए।
संविधान को अंगीकृत किए जाने की 75वीं वर्षगांठ (25 नवंबर, 2014) के पहले इसी मांग को लेकर कई याचिकाएं दायर की गईं। उच्चतम न्यायालय ने इन सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया। अदालत का कहना था कि इन दोनों शब्दों को जोड़ने पर केवल इस आधार पर आपत्ति नहीं की जा सकती कि जिस समय संविधान को अंगीकृत किया गया था उस समय उद्देशिका में ये दोनों शब्द शामिल नहीं थे।
इन दोनों मूल्यों के ही नहीं, हिन्दू राष्ट्रवादी तो पूरे संविधान के खिलाफ हैं। संविधान सभा में बहसों के दौरान कई नेताओं ने यह आशंका जाहिर की थी कि धर्मनिरपेक्षता को कमजोर किए जाने के प्रयासों के खिलाफ सावधान रहने की जरूरत है। एक उदाहरण सरदार पटेल का है। उन्होंने कहा था, ‘‘मैं यह साफ कर देना चाहता हूं कि भारत के इस संविधान, स्वतंत्र भारत के इस संविधान, एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के इस संविधान, में साम्प्रदायिक आधार पर कोई प्रावधान शामिल कर इसे विरूपित नहीं किया जाएगा।’’
जहां तक संविधान का प्रश्न है, होसबोले के तर्क में कोई खास दम नहीं है क्योंकि संविधान के प्रावधानों में ये दोनों मूल्य शामिल हैं। अनुच्छेद 25 अंतर्आत्मा और आस्था की स्वतंत्रता की गारंटी और अपने धर्म का पालन और प्रचार करने की आजादी देता है। इस अनुच्छेद के खंड (2) (क) में ‘‘धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग किया गया है।
चुनावी मजबूरियों के चलते बीजेपी एक साथ कई अलग-अलग स्वरों में बात करती रही है। उसने शुरूआत गांधीवादी समाजवाद से की थी। 1985 में उसने गांधीवादी समाजवाद को छोड़कर जातिगत ऊंच-नीच पर आधारित एकात्म मानववाद का वरण कर लिया। बीजेपी द्वारा सन 2012 में अपने जिस संविधान का निर्माण किया गया, उसमें कहा गया है कि, ‘‘पार्टी विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान और समाजवाद, पंथ-निरपेक्षता और लोकतंत्र के सिद्धांतों के प्रति सच्ची आस्था और निष्ठा रखेगी और भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखंडता को कायम रखेगी।’’
आरएसएस-बीजेपी का मूल एजेंडा हिन्दू राष्ट्र का निर्माण है जो मनुस्मृति द्वारा शासित होगा। 26 जनवरी 1950 को भारत के संविधान के लागू होने के पहले ही आरएसएस के मुखपत्र आर्गनाईजर ने अपने एक संपादकीय में संविधान की कड़ी निंदा की। 30 नवंबर 1949 को आर्गनाईजर ने लिखा, ‘‘भारत के नए संविधान के बारे में सबसे खास बात यह है कि इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे भारतीय कहा जाए। इसमें न भारतीय कानून हैं, न भारतीय संस्थाएं हैं, न शब्दावली और पदावली हैं।’’ मतलब यह कि भारत के संविधान निर्माताओं ने मनुस्मृति को नजरअंदाज किया है।
इसी तरह हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रमुख चिंतक वी.डी. सावरकर ने लिखा, “मनुस्मृति वह शास्त्र है जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सबसे अधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति-रीति-रिवाजों, विचारों और व्यवहार का आधार बन गया है। सदियों से इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र की आध्यात्मिक और दैवीय यात्रा के लिए संहिताबद्ध किया है। आज भी करोड़ों हिंदू अपने जीवन और व्यवहार में जिन नियमों का पालन करते हैं, वे मनुस्मृति पर आधारित हैं। आज मनुस्मृति हिंदू कानून है। यही मूल है।“ वी.डी. सावरकर. ‘‘विमेन इन मनुस्मृति’’ सावरकर समग्र (सावरकर के लेखन का हिन्दी में संकलन, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, खंड-4, पृष्ठ 415)।
सन 1990 के दशक में तीन प्रमुख वक्तव्यों और कार्यवाहियों से आरएसएस की हिन्दू राष्ट्र के लक्ष्य के प्रति गहरी और पूर्ण प्रतिबद्धता जाहिर हुई। सन 1993 में तत्कालीन सरसंघचालक रज्जू भैया ने कहा कि ‘‘आधिकारिक दस्तावेज मिली-जुली संस्कृति की बात करते हैं। मगर हमारी संस्कृति निश्चित तौर पर मिली-जुली नहीं है...इस देश में एक अनूठी सांस्कृतिक एकता है। अगर किसी देश को अपना अस्तित्व बनाए रखना है तो उसमें कई भाग नहीं हो सकते। इससे पता चलता है कि संविधान में बदलाव की जरूरत है। भविष्य में हमें ऐसा संविधान अपनाना चाहिए जो भारत के आचार-विचारों और उसके गुणों से मेल खाता हो।’’
सन 1998 में बीजेपी-एनडीए के रूप में सत्ता में आई। उसने सबसे पहले जो काम किए उनमें शामिल था संविधान की समीक्षा के लिए वेंकटचलैया आयोग की नियुक्ति। सरकार की ओर से कहा गया कि संविधान पुराना हो चला है और उसमें सुधारों की जरूरत है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की मगर उसका इतना जबरदस्त विरोध हुआ कि उसकी सिफारिशों को लागू करने का विचार त्याग दिया गया।
इस सबके बावजूद सन 2000 में जब के. सुदर्शन आरएसएस के सरसंघचालक बने तो उन्होंने फिर कहा कि भरतीय संविधान पश्चिमी मूल्यों पर आधारित है और उसे हटाकर उसकी जगह हिन्दू पवित्र ग्रंथों (अर्थात मनुस्मृति) पर आधारित संविधान लागू किया जाना चाहिए।
कई बीजेपी नेता भी यही बात समय-समय पर कहते रहते हैं। कर्नाटक के अनंत कुमार हेगड़े ने कहा था कि उनकी पार्टी संविधान को बदलने के लिए ही सत्ता में आई है। सन 2024 के आम चुनाव के पहले ‘‘अबकी बार 400 पार’’ के नारे के संदर्भ में कई बीजेपी नेताओं ने कहा था कि पार्टी को लोकसभा में 400 से ज्यादा सीटों की जरूरत इसलिए है ताकि वो संविधान को बदलने के अपने इरादे को अमलीजामा पहना सके।
मगर बीजेपी किस तेजी से अपना रंग बदल सकती है, यह मोदी के इस बयान से जाहिर है कि अगर बाबा साहेब अंबेडकर भी वापस आ जाएं तो भी वे संविधान को नहीं बदल सकते। सन 2024 के आम चुनाव के प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने संविधान को एक प्रमुख मुद्दा बना लिया था। वे अपनी यात्राओं के दौरान और भाषण के समय संविधान की एक प्रति अपने हाथों में रखते थे। इसका आरएसएस/बीजेपी की ओर से खुलकर विरोध नहीं हुआ और मोदी ने भी संविधान की प्रति के सामने अपना सर झुकाया।
आरएसएस/बीजेपी की कार्यशैली काफी जटिल है। वो एक-साथ कई विरोधभासी बातें कर सकते हैं और करते हैं। वे छोटे-छोटे कदम उठाकर संविधान के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं और साथ ही संविधान के मूल्यों और नीतियों का उल्लंघन भी कर रहे हैं। पिछले एक दशक से हम यही देख रहे हैं। होसबोले का बयान एक सोची-समझी रणनीति के तहत दिया गया है। संघ यह देखना चाहता है कि इस पर क्या प्रतिक्रिया होती है ताकि प्रजातांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों सहित संविधान में निहित समानता को समाप्त करने के अपने एजेंडे को आगे बढ़ा सके।
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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