धर्मशास्त्रों के अनुसार अनिच्छा, परेच्छा और स्वेच्छा, इन तीन मार्गों से प्रारब्ध का फल मनुष्य को प्राप्त होता है।
ऊपर वर्णित सभी फल भोगों के द्वारा भाग्यफल का सृजन होता है। सरल भाषा में कहें तो प्रारब्ध का भोग तीन प्रकार से होता है, अनिच्छा भोग यानी कि हमारे नियंत्रण के बाहर घटित घटनाएं, जैसे रोग या हानि। परेच्छा भोग अर्थात दूसरों की इच्छा या कर्म से प्राप्त सुख-दुःख और स्वेच्छा भोग यानी कि हमारी अपनी इच्छा और प्रयास से मिलने वाले फल।
- अनिच्छा भोग (दैवेच्छा से)- जब किसी व्यक्ति के जीवन में बिना किसी इच्छा या प्रयास के कोई घटना घटित होती है तो उसे दैवेच्छा से अनिच्छा भोग प्रारब्ध फल कहा जाता है। जैसे रोग लग जाना, मृत्यु हो जाना, खरीदी हुई वस्तु का मूल्य का घट जाना, धन या संपत्ति का नाश हो जाना, तो ये सब पूर्वकृत कर्मों के अनिच्छा भोग हैं। इसी प्रकार यदि दैवेच्छा से धन, मान-सम्मान या सुख की प्राप्ति होती है, तो वह भी हमारे पूर्व पुण्य कर्मों का परिणाम होता है।
- परेच्छा भोग (दूसरों की इच्छा से)- जब कोई व्यक्ति या जीव हमारे सुख-दुःख का कारण बनता है, तब उसे परेच्छा भोग कहते हैं। जैसे किसी डाकू ने धन लूट लिया, किसी ने द्वेषवश हानि पहुंचा दी, या किसी पशु-पक्षी ने काट लिया, ये सब पूर्व जन्म के पाप कर्मों के दुःख रूप फल हैं जो दूसरों की इच्छा से भोगे जाते हैं। इसके विपरीत, यदि किसी के सहयोग से हमें धन, जमीन, संतान या कोई अन्य सुखद वस्तु प्राप्त होती है, तो यह भी पूर्व पुण्य कर्मों का ही सुखरूप फल है, जो परेच्छा भोग कहलाता है।
- स्वेच्छा भोग (अपनी इच्छा से)- जब हम अपने प्रयत्नों, कर्मों या इच्छाओं के अनुसार कोई सुख या दुःख अनुभव करते हैं, तो यह स्वेच्छा भोग होता है। जैसे व्यापार में लाभ मिलना, स्वयं के परिश्रम से सफलता प्राप्त करना, यह हमारे पूर्व पुण्य कर्मों का सुखरूप फल है और यदि अपने प्रयासों के बावजूद हानि, पराजय या दुःख मिलता है, तो यह पूर्व पाप कर्मों का स्वेच्छापूर्वक भोगा गया परिणाम है।
ऊपर वर्णित सभी फल भोगों के द्वारा भाग्यफल का सृजन होता है। सरल भाषा में कहें तो प्रारब्ध का भोग तीन प्रकार से होता है, अनिच्छा भोग यानी कि हमारे नियंत्रण के बाहर घटित घटनाएं, जैसे रोग या हानि। परेच्छा भोग अर्थात दूसरों की इच्छा या कर्म से प्राप्त सुख-दुःख और स्वेच्छा भोग यानी कि हमारी अपनी इच्छा और प्रयास से मिलने वाले फल।
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