बिहार की राजनीति हमेशा से ही सामाजिक और जातीय समीकरणों से गहराई तक प्रभावित रही है। इतिहास में ऐसे कई क्षण आए हैं, जिनमें एक निर्णायक राजनीतिक कदम राज्य के भविष्य को बदल सकता था। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण अवसर 1963 में सामने आया, जब कुर्मी नेता बिहार के मुख्यमंत्री बन सकते थे।
तब कांग्रेस पार्टी राज्य की सत्ता पर हावी थी और कुर्मी नेता का मुख्यमंत्री बनना पिछड़े वर्ग के लिए ऐतिहासिक बदलाव का संकेत देता। अगर यह संभव हो पाता, तो पहली बार कोई पिछड़ा वर्ग का नेता बिहार के सत्ता सिंहासन पर बैठता और पिछड़े वर्ग की राजनीतिक भागीदारी मजबूत होती। यह अवसर केवल एक पद से अधिक महत्वपूर्ण था, क्योंकि इसके जरिए कांग्रेस पिछड़े वर्ग के साथ अपने संबंध और मजबूत कर सकती थी।
विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस की जातीय राजनीति और भीतरघात ने इस अवसर को नष्ट कर दिया। पार्टी के भीतर मतभेद और कुर्मी नेताओं के समर्थन में सही ढंग से रणनीति न बनाने के कारण यह दूरगामी मौका हाथ से निकल गया। अगर कांग्रेस ने इस अवसर का सही इस्तेमाल किया होता, तो पिछड़े वर्ग में उसकी पैठ बढ़ती और समाजवादी दल इतनी मजबूत स्थिति में नहीं पहुँच पाते।
1963 के इस अवसर को खो देने का नतीजा सीधे तौर पर 1967 के विधानसभा चुनाव में सामने आया। कांग्रेस को तब भारी हार का सामना करना पड़ा। यह हार केवल चुनावी परिणाम नहीं थी, बल्कि एक संकेत था कि राजनीतिक भीतरघात और जातीय समीकरणों की अनदेखी पार्टी के लिए कितनी महंगी साबित हो सकती है।
विशेषज्ञों का कहना है कि बिहार की राजनीति में पिछड़े वर्ग का उदय धीरे-धीरे हुआ। कांग्रेस का यह मौका न गंवाना, बिहार की राजनीतिक दिशा बदल सकता था। कुर्मी और अन्य पिछड़े वर्ग के नेताओं के मुख्यमंत्री बनने से राज्य में सामाजिक न्याय और पिछड़े वर्ग के अधिकारों के लिए नए मार्ग खुल सकते थे।
यह घटना आज भी बिहार की राजनीति का एक महत्वपूर्ण मोड़ मानी जाती है। कांग्रेस की चूक ने समाजवादी दलों और अन्य राजनीतिक संगठनों के लिए जमीन तैयार कर दी, जिन्होंने बाद में राज्य की राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत की। इस ऐतिहासिक गलती से स्पष्ट होता है कि सामाजिक और जातीय समीकरणों को समझकर ही राजनीति में लंबे समय तक सफलता प्राप्त की जा सकती है।
संक्षेप में, 1963 का अवसर कांग्रेस के लिए बिहार में पिछड़े वर्ग के साथ गहरी पैठ बनाने का था, लेकिन जातीय राजनीति और भीतरघात के कारण यह सपना अधूरा रह गया। नतीजा यह हुआ कि 1967 में कांग्रेस को भारी हार का सामना करना पड़ा और राज्य की राजनीति में पिछड़े वर्ग के उदय ने नए राजनीतिक समीकरणों को जन्म दिया।
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